Monday, 18 July 2022

आवरण कथा: पशु चारे की जद्दोजहद, भाग-दो

पहले से ही चल रही भूसे की समस्या को बेमौसम बारिश, अत्यधिक गर्मी और गेहूं के कम उत्पादन ने बढ़ा दिया है

By Bhagirath Srivas, Arvind Shukla, Sandeep Meel

On: Monday 18 July 2022
मौसम की मार से गेहूं की फसल प्रभावित हुई। इसके कारण चारे की उपलब्धता पर असर पड़ा है (फोटो: विकास चौधरी)


भूसे की कमी के तात्कालिक और दीर्घकालिक कारण हैं। यह सरकार की नीतिगत असफलताओं का भी नतीजा है। पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें 

विडंबना यह है कि यह संकट कितना बड़ा है, इसकी गणना भी संभव नहीं है। वाराणसी स्थित उदय प्रताप कॉलेज में सस्य विज्ञान में असिस्टेंट प्रोफेसर देव नारायण सिंह आंकड़ों के अभाव को इसका कारण मानते हुए कहते हैं कि चारा उपभोग और उत्पादन के जो आंकड़े प्रयोग हो रहे हैं वे बेहद पुराने हैं और अनुमानों पर आधारित हैं। इन आंकड़ों से संकट की सच्ची तस्वीर सामने नहीं आती। मौजूदा स्थिति को देखते हुए उन्हें लगता है कि 20-25 प्रतिशत भूसे की कमी है (देखें, सरकारी नीतियों में हाशिए पर रहा चारा उत्पादन,)।

ग्रास एंड फॉरेज साइंस में जनवरी 2022 में प्रकाशित देव नारायण सिंह का अध्ययन “ए रिव्यू ऑफ इंडियाज फॉडर प्रॉडक्शन स्टेटस एंड अपॉर्च्युनिटीज” कहता है कि पंजाब और हरियाणा में जहां 8 प्रतिशत जुताई योग्य भूमि पर चारा उगाया जाता है, वहां चारे की कमी ज्यादा नहीं है, लेकिन सूखागस्त बुंदेलखंड में यह कमी गंभीर है क्योंकि यहां केवल 2 प्रतिशत जुताई योग्य भूमि पर चारा उगाया जाता है। इंडियन जर्नल ऑफ एनिमल साइंसेस में सितंबर 2021 में प्रकाशित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर इकॉनोमिक्स एंड पॉलिसी रिसर्च के खेमचंद का अध्ययन बताता है कि बुंदेलखंड क्षेत्र गर्मियों में 62.79 प्रतिशत चारे की कमी से जूझता है।

क्यों गहराया संकट

उत्तर प्रदेश के झांसी स्थित भारतीय चारागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान (आईजीएफआरआई) में क्रॉप प्रॉडक्शन डिविजन के प्रमुख सुनील तिवारी मशीनीकरण के उपयोग, फसलों के विविधिकरण और हीट स्ट्रेस (अत्यधिक गर्मी) को मौजूदा चारे की कमी के तीन प्रमुख कारण मानते हैं। उनका कहना है कि कंबाइन हार्वेस्टर से कटाई से भूसा कम निकल रहा है। असल में कंबाइन हार्वेस्टर मशीन फसलों के दाने वाले हिस्से की ही कटाई करती है और पुआल को खेतों में ही छोड़ देती है। पंजाब और हरियाणा जैसे राज्य इस अवशेष में आग लगा देते हैं। इससे बहुत सा सूखा चारा बर्बाद हो जाता है। तिवारी का कहना है कि मशीनीकरण से पहले खेत में अनाज के बराबर भूसा निकलता था लेकिन अब यह घटकर करीब आधा रह गया है।

वह आगे बताते हैं, “किसान गेहूं से सरसों की तरफ आकर्षित हुए हैं क्योंकि उसका भाव गेहूं से अधिक है। इसके अलावा मार्च में हीट स्ट्रेस के चलते भी गेहूं के साथ भूसे के उत्पादन में कमी आई है।” हाइब्रिड बीजों के चलन को भी भूसा संकट से जोड़ा जा सकता है। अधिक उपज देने वाले इन बीजों के पौधे ज्यादा नहीं बढ़ते। पौधे की कम लंबाई का सीधा मतलब है कम भूसा। इसके अलावा प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य पंजाब-हरियाणा में साल की शुरुआत में हुई बारिश ने गेहूं की फसल को बुरी तरह प्रभावित किया। इन दो राज्यों से बड़े पैमाने पर भूसे का निर्यात दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में किया जाता है और यहां चारा व्यापारियों की अच्छी खासी संख्या है। पंजाब के पटियाला निवासी ऐसे ही एक भूसा व्यापारी जॉनी सैणी मानते हैं कि साल की शुरुआत में हुई बारिश से गेहूं की आधी फसल सड़ गई। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में कृषि वैज्ञानिक बलजिंदर कौर सिदाना भी मानती हैं कि पंजाब में गर्मी और बारिश के चलते गेहूं के उत्पादन में 30 प्रतिशत की कमी आई है। पंजाब के कृषि विभाग द्वारा किए गए शुरुआती फसल कटाई प्रयोग (सीसीई) में भी माना गया है कि इस साल मार्च में बढ़ी गर्मी ने गेहूं की उपज को बुरी तरह प्रभावित किया।

मई 2022 में डायरेक्टोरेट ऑफ इकोनोमिक्स एंड स्टेटिस्टिक्स द्वारा जारी तीसरे अग्रिम अनुमान के आंकड़े भी पंजाब और हरियाणा में गेहूं की कम उपज की तस्दीक करते हैं। 31 मई 2022 तक के ये आंकड़े बताते हैं कि पंजाब में रबी सीजन 2020-21 में 171.86 लाख टन के मुकाबले 2021-22 के सीजन 144.56 लाख टन ही गेहूं की उपज संभावित हैं। इसी तरह हरियाणा में पिछले वर्ष के 123.94 लाख टन की तुलना में 106.20 लाख टन ही गेहूं उत्पादन की उम्मीद है। हरियाणा के जींद जिले के राजगढ़ धोबी गांव के कृषन के अनुसार, एक एकड़ के खेत से 10 क्विंटल ही भूसा निकला है। फसल बारिश और गर्मी से प्रभावित नहीं होती तो करीब 20 क्विंटल भूसा निकलता। संगरूर के भूसा व्यापारी नायब सिंह पंजाब में एक नए चलन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि राज्य में दो साल पहले तक कोई सरसों की फसल नहीं लगाता था, लेकिन सरसों के भाव को देखते हुए लोगों ने सरसों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है। वह संगरूर के महासिंहवाड़ा गांव का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि गांव में 2021 में करीब 100 एकड़ (करीब 10 प्रतिशत खेत) में सरसों की बुवाई हुई है। हालांकि बलजिंदर कौर सिदाना मानती हैं कि पंजाब में सरसों की खेती तो बढ़ी है लेकिन इससे गेहूं के कुल रकबे में विशेष अंतर नहीं पड़ा है।

7 जनवरी 2022 को जारी हुए रबी सीजन के बुवाई के आंकड़े भी गेहूं के कम रकबे और सरसों के बढ़े रकबे की पुष्टि करते हैं। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, इस अवधि तक पिछले वर्ष की तुलना में 5.84 लाख हेक्टेयर में गेहूं की कम बुवाई हुई है। गेहूं का कम रकबा अन्य सभी फसलों की अपेक्षा सबसे कम हुआ है। उत्तर प्रदेश में गेहूं का रकबा सबसे ज्यादा कम हुआ है। राज्य में 3.11 लाख हेक्टेयर गेहूं का रकबा घटा है। दूसरे स्थान पर हरियाणा है जहां 1.35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में गेहूं की कम बुवाई हुई है। महाराष्ट्र में 1.20 लाख हेक्टेयर, मध्य प्रदेश में 1.14 लाख हेक्टेयर और गुजरात में 0.90 लाख हेक्टेयर की कमी आई है। गेहूं की खेती के लिए लोकप्रिय पंजाब में भी इसका रकबा 0.20 लाख हेक्टेयर कम हुआ है। दूसरी तरफ सरसों का रकबा 2020-21 की तुलना में 2021-22 में सर्वाधिक 17.19 लाख हेक्टेयर बढ़ा। तिलहन फसलें कुल 98.85 लाख हेक्टेयर में बोई गई हैं। इसमें 89.71 लाख हेक्टेयर की हिस्सेदारी सरसों की है। इसका ज्यादातर रकबा उन्हीं राज्यों में बढ़ा जहां गेहूं का कम हुआ। राजस्थान अपवाद जरूर है, जहां दोनों का रकबा बढ़ा है। इन तमाम स्थितियों ने प्रत्यक्ष रूप से भूसे की उपलब्धता प्रभावित की।

मांग और आपूर्ति में असंतुलन

भारत में फसलों के अवशेष, सिंचित व असिंचित भूमि और सामुदायिक संसाधन जैसे वन, स्थायी चारागाह व चराई भूमि चारे के तीन अहम स्रोत हैं। सूखा चारा मुख्यत: फसलों के अवशेष जैसे भूसा, पुआल से प्राप्त होता है। नीति आयोग की फरवरी 2018 में जारी हुई वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट “डिमांड एंड सप्लाई प्रोजेक्शंस टूवार्ड्स 2033: क्रॉप, लाइवस्टॉक, फिशरीज एंड एग्रीकल्चरल इनपुट्स” की मानें तो देश में हरे चारे की 40 और सूखे चारे की 35 प्रतिशत तक की कमी है। रिपोर्ट आगे कहती है कि हरे चारे की कमी मुख्य रूप से 10 मिलियन हेक्टेयर में फैले चारागाह के बड़े हिस्से पर अतिक्रमण और चारा फसलों के सीमित क्षेत्र के कारण है। रिपोर्ट के अनुसार, चारे की कीमत दूध की तुलना में तेजी से बढ़ रही है जिससे लाभप्रदता घट रही है। इसकी कमी के चलते ही डेरी क्षेत्र की उत्पादकता कम है। इसी के चलते देश में आवारा पशुओं की समस्या विकराल होती जा रही है। 2019 में जारी हुई 20वीं पशुधन जनगणना के अनुसार, भारत में आवारा पशुओं की संख्या 50 लाख से अधिक हो चुकी है। सर्वाधिक पशुधन की आबादी वाले 10 में से 7 राज्यों में इनकी संख्या 2012 से 2019 के बीच बढ़ी है। ऐसे राज्यों में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात प्रमुखता से शामिल हैं। इनमें से अधिकांश राज्य चारे की कमी से जूझ रहे हैं।

जून 2017 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ लाइवस्टॉक रिसर्च में प्रकाशित बंगलुरू के वेटरिनरी कॉलेज के डिपार्टमेंट आॅफ वेटरिनरी एंड एिनमल हस्बेंडरी एक्सटेंशन एजुकेशन में स्कॉलर मुत्तूराज यादव के अध्ययन के अनुसार, भारत में 355.93 मिलियन टन सूखा चारा फसलों के अवशेष से प्राप्त होता है। अध्ययन के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर 574.3 मिलियन टन सूखा चारा उपलब्ध है। इसकी 62.5 प्रतिशत आपूर्ति फसलों के अवशेष से होती है। वहीं हरे चारे की आपूर्ति चारा फसलों ज्वार, बाजरा, मक्का, बरसीम आदि से होती है। देश के कुल फसली क्षेत्र में से केवल 5 प्रतिशत पर ही चारा उगाया जाता है। शेष हरे चारे की आपूर्ति चारागाह, वन व अन्य सामुदायिक भूमि से पूरी होती है।

उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के नरैनी में स्थित इस गोशाला में दिसंबर 2021 में चारे की कमी के चलते बड़े पैमाने पर गायों की मौत हो गई थी। यहां की लगभग 50 मरी और अधमरी गाय को मध्य प्रदेश के जंगल में ले जाकर दफना दिया गया था (फोटो: अशोक निगम)

अगस्त 2019 में आईजीएफआरआई के शोधकर्ता और वैज्ञानिक अजॉय कुमार रॉय, नीतिश रत्तन भारद्वाज और सनत कुमार महंता के शोधपत्र “रिविजिटिंग नेशनल फॉरेज डिमांड एंड अवेलिबिलिटी सिनेरियो” के अनुसार, चारा फसलों से 88 प्रतिशत हरे चारे की आपूर्ति होती है और शेष वनों, चारागाह, परती भूमि और जुताई योग्य बंजर भूमि से मिलता है। हरे चारे के सभी स्रोतों से 734.2 मिलियन टन की आपूर्ति होती है, जबकि आवश्यकता 827.19 मिलियन टन की है। अध्ययन के अनुसार, देश में करीब 89 मिलिटन टन (11.24 प्रतिशत) हरे चारे की कमी है। वहीं सूखे चारे की 23.4 प्रतिशत की कमी है। 426.1 मिलियन टन की मांग के मुकाबले 326.4 मिलियन टन ही सूखा चारा उपलब्ध है। हालांकि कुछ अन्य रिपोर्ट कमी की अलग तस्वीर पेश करती हैं। मसलन 2016-17 की कृषि संबंधी स्थायी समिति की 34वीं रिपोर्ट में बंगलुरु स्थित राष्ट्रीय पशु पोषण एवं शरीर क्रिया विज्ञान संस्थान (एनआईएएनपी) अनुमान के आधार पर कहा गया कि वर्ष 2020 में 23 प्रतिशत सूखे चारे, 32 प्रतिशत हरे चारे की कमी होगी। रिपोर्ट में अनुमान है कि 2025 तक हरे चारे की कमी बढ़कर 40 प्रतिशत हो जाएगी जबकि सूखे चारे की कमी 23 प्रतिशत ही रहेगी। 10वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में अनुमान लगाया गया है कि 2025 तक हरे चारे की कमी 64.87 और सूखे चारे की कमी 24.92 प्रतिशत हो जाएगी।

20वीं पशुधन जनगणना के अनुसार, भारत में करीब 535 मिलियन पशु हैं जो विश्व में सर्वाधिक है, लेकिन इनकी दूध उत्पादकता वैश्विक औसत 2,238 किलोग्राम प्रतिवर्ष की तुलना में ही 1,538 किलो प्रतिवर्ष ही है। चारे की भारी कमी पशुओं के कुपोषण और कम दूध उत्पादन की प्रमुख वजह है। मार्च 2015 में लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में कृषि मंत्रालय ने बताया कि भारत में प्रति वर्ष प्रति पशु 1,200 किलो हरा और 1,400 किलो सूखा चारा ही उपलब्ध है। जबकि सूखे चारे की वार्षिक आवश्यकता लगभग 2,200 किलो (6 किलो प्रतिदिन/पशु) और हरे चारे की वार्षिक आवश्यकता 3,600 (10 किलो प्रतिदिन/पशु) किलो है।


आईजीएफआरआई के मुताबिक, देश की कुल जोत के मुकाबले लगभग 4 प्रतिशत क्षेत्रफल में ही चारा उगाया जाता है, जबकि पशुधन की आबादी को देखते हुए इसे 12 से 16 प्रतिशत करने की आवश्यकता है। देव नारायण सिंह एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू की ओर इशारा करते हुए बताते हैं कि खाद्यान्न फसलों की तरह चारा फसलों का दस्तावेजीकरण नहीं हो रहा है। सबसे अधिक पशुधन के बाद भी चारा फसलों को कल्टीवेटेट फसल के रूप में मान्यता नहीं मिली है। वह चारे संकट को नीतिगत मानते हुए कहते हैं, “सरकार ने चारा बाजार का व्यवस्थित तंत्र विकसित करने की कभी पहल नहीं की। यही वजह है कि सरकारी सेक्टर के अधीन कोई चारा मार्केट नहीं है। पूरा बाजार असंगठित क्षेत्र के हवाले है। राज्यों ने चारे की कमी को देखते हुए कुछ कदम जरूर उठाए हैं, लेकिन कोई समस्या की जड़ में नहीं गया” अजॉय कुमार रॉय अपने अध्ययन में सुझाव देते हैं कि चारा विकास कार्यक्रम मिशन मोड में चलाने की आवश्यकता है। सालभर चारे की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए चारा उत्पादन और उसके संरक्षण की जरूरत है। चारागाह नीति बनाने और बदहाल अवस्था में पहुंच चुके चारागाह को पुनर्जीवित करने की भी जरूरत है। साथ ही चारे फसलों की किस्मों में सुधार, तकनीकी सुधार, बीज उत्पादन की दिशा में अनुसंधान और विकास की तत्काल आवश्यकता है। 

https://www.downtoearth.org.in/hindistory/economy/rural-economy/Cover-Story-The-Struggle-of-Animal-Feed-Part-Two-83557

No comments:

Post a Comment