Wednesday 29 June 2022

अतिक्रमण हटाया:कलेक्टर के निर्देश पर कजानीपुर में जसीबी से 35 बीघा जमीन से प्रशासन ने अतिक्रमण हटाया

 करौली

चरागाह भूमि गैर मुमकिन बगीची पर प्रभावशाली लोगों ने अतिक्रमण किया था

ग्राम कजानीपुर स्थित राजकीय चारागाह व गैर मुमकिन बगीची की लगभग 35 बीघा भूमि को मंगलवार को अतिक्रमण मुक्त किया गया। इसके लिए कलेक्टर अंकित कुमार सिंह के निर्देश पर धर्मसिंह तहसीलदार हिंडौन व कार्यवाहक तहसीलदार श्रीमहावीरजी नियुक्त किये जाने पर धर्मसिंह तहसीलदार और श्रीमहावीरजी की ओर से उपखण्ड अधिकारी अनूप सिंह के निर्देश पर उक्त अतिक्रमण को हटाने की कार्यवाही की गयी।

गौरतलब है कि ग्राम कजानीपुर स्थित चारागाह व गैर मुमकिन बगीची की लगभग 35 बीघा भूमि पर अतिक्रमियों की ओर से अतिक्रमण किये जाने पर कलेक्टर ने प्रकरण में जांच कर आवश्यक कार्यवाही के निर्देश दिये गये। निर्देशों की पालना में उपखण्ड अधिकारी अनूप सिंह ने तहसीलदार श्रीमहावीरजी को मौका मजिस्ट्रेट नियुक्त कर अतिक्रमण हटाने के लिए निर्देशित किया गया। सीमाज्ञान व अतिक्रमण हटाने के सम्बन्ध में कार्यवाही पिछले 19 दिनों से की जा रही थी।

उक्त अतिक्रमण को उपखण्ड अधिकारी ने संज्ञान में लिये जाने पर धर्मसिंह तहसीलदार महावीरजी ने मय राजस्व व पुलिस जाब्ता की टीम के साथ मौके पर कानून व्यवस्था कायम करते हुए कजानीपुर स्थित चारागाह भूमि और गैर मुमकिन बगीची की भूमि से अतिक्रमण हटाने की कार्यवाही की गयी। अतिक्रमण हटाने के दौरान तहसीलदार श्रीमहावीरजी धर्मसिंह, नायब तहसीलदार महावीर प्रसाद, पुष्पेन्द्र राजवात भूअनि, अशोक डागुर पटवारी, राजस्व दल व पुलिस जाब्ता मौके पर तैनात रहा।


https://www.bhaskar.com/local/rajasthan/karauli/news/on-the-instructions-of-the-collector-the-administration-removed-the-encroachment-from-35-bighas-of-land-from-jcb-in-kajanipur-129996742.html


Saturday 18 June 2022

बाली में नापो जल बचाओ कल अभियान के अंतर्गत, भूमिगत जल स्तर का किया जा रहा मापन

पाली के बाली उपखंड के सभी ग्राम पंचायतों में नापो जल, बचाओ कल के तहत वेल मोनिटरिंग का कार्य किया जा रहा. प्रकृति कार्यशाला के कार्यक्रम समन्वयक गणपत लाल प्रजापत और देसूरी विकाशखण्ड के फील्ड प्रशिक्षक प्रहलाद सिंह कोट ने बताया कि हमारी 80% पानी की जरूरते भूजल से पूरी होती है.

Tuesday 7 June 2022

पब्लिक लैंड प्रोटेक्शन सेल: आम लोगों के लिए एक नई उम्मीद

विवादों के निबटान और अतिक्रमण का शिकार हुए ज़मीनों को वापस समुदायों को दिलवाने के अलावा पब्लिक लैंड प्रोटेक्शन सेल सार्वजनिक भूमियों के संचालन और प्रबंधन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

पूजा चंद्रन, सुब्रता सिंह

June 8, 2022

सार्वजनिक भूमि ऐसे प्राकृतिक संसाधन होते हैं जिनका इस्तेमाल समुदाय के लोग सार्वजनिक हितों के लिए करते हैं। इनमें जंगल, चारागाह, तालाब और कूड़ा इकट्ठा (वेस्टलैंड) करने वाली जगहें होती हैं। ये ग़ैर-नक़द, ग़ैर-बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के लिए उपलब्ध संसाधनों का आधार होती हैं। ऐसी ज़मीनें स्थानीय लोगों के ईंधन, पानी, तेल, मछली, जड़ी-बूटी, विभिन्न प्रकार की फल-सब्ज़ियों के अलावा उनके पशुओं के लिए चारा आदि की ज़रूरतें पूरी करती हैं। विभिन्न अध्ययन बताते हैं कि ग्रामीण घरों की कुल आय में आम ज़मीन से होने वाली आय का योगदान 12 से 23 प्रतिशत के बीच होता है। कार्बन के क्षेत्र में भी इन ज़मीनों का योगदान होता है और ये जैव विविधता के भंडार और देशी ज्ञान की निशानियों में बदल जाती हैं।

भारत में सार्वजनिक भूमि के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है। 2005 से 2015 के बीच अकेले चारागाह के रूप में प्रयुक्त होने वाली ज़मीन पहले से 31 प्रतिशत कम हुई है। औद्योगीकरण की तेज गति से इन जमीनों पर पड़ने वाला बोझ बढ़ा है। लोग अब इनका उपयोग घर-मकान बनाने के साथ-साथ खेती में करने लगे हैं। इसके अलावा ‘उर्वर’ ज़मीनों की गहरी खुदाई से आसपास का परिदृश्य भी तेज़ी से बदल रहा है।इन सबमें एक नई जुड़ी चीज़ है भारत का स्वच्छ ऊर्जा संक्रांति (क्लीन एनर्जी ट्रैंज़िशन)। 


अस्पष्ट सीमाएँ महँगी और अपूर्ण प्रवर्तन की स्थिति पैदा करती हैं और भूमि और सम्पत्ति क़ानूनों में अतिच्छादन इस समस्या को कई गुना और अधिक बढ़ा देती है। | चित्र साभार: फ़ाउंडेशन फ़ॉर एकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफ़ईएस)

निजी ज़मीनों की तुलना में सार्वजनिक ज़मीनों का क़ानूनी रूप से मान्यता प्राप्त होने की सम्भावना कम होती है। इसलिए सार्वजनिक जगहों का अतिक्रमण और उस पर निजी स्वामित्व का दावा करना बहुत आसान हो जाता है। अस्पष्ट सीमाएँ महँगी और अपूर्ण प्रवर्तन की स्थिति पैदा करती हैं और भूमि और सम्पत्ति क़ानूनों में अतिच्छादन इस समस्या को कई गुना और अधिक बढ़ा देती है। इस समस्या से निपटने के लिए 28 जनवरी 2011 को भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में सार्वजनिक संसाधनों के संरक्षण के लिए एक व्यवस्था को सक्रिय बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। जगपाल सिंह और अन्य बनाम पंजाब सरकार और अन्य नाम वाले मामले में कोर्ट ने सार्वजनिक ज़मीनों के सामाजिक-आर्थिक महत्व को मान्यता देते हुए राज्य सरकारों को अतिक्रमण हटाने के लिए योजनाएँ तैयार करने का निर्देश दिया। उसके बाद गाँव के सार्वजनिक उपयोग के लिए ऐसी सभी ज़मीनों को ग्राम पंचायत को वापस करना था।

इस फ़ैसले से ग्रामीण समुदायों में अपनी उन सभी ज़मीनों को वापस पाने की आशा जाग गई जो अतिक्रमण के कारण उनसे छिन गई थीं। इसके अलावा इस फ़ैसले ने मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सार्वजनिक संसाधनों की सुरक्षा, प्रबंधन और बहाली के लिए राज्य सरकारों को तंत्र विकसित करने के लिए भी प्रेरित किया। इसने लोअर कोर्ट के लिए देश में सार्वजनिक ज़मीनों पर न्यायशास्त्र विकसित करने के शुरुआती बिंदु के रूप में भी काम किया है।

पब्लिक लैंड प्रोटेक्शन सेल क्या हैं?

राजस्थान और मध्य प्रदेश में कुल भूमि का क्रमश: 36 प्रतिशत और 37 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक भूमि का हिस्सा है। ज़मीन के ये टुकड़े लाखों ग्रामीणों के आत्म-सम्मान, सुरक्षा और आजीविका का साधन हैं। राज्य की अदालतों में सरकारों के अतिक्रमण के ख़िलाफ़ दायर की जाने वाली जन हित याचिकाओं का अम्बार है। इसे ध्यान में रख कर और जगपाल सिंह फ़ैसले के नक़्शे कदम पर चलते हुए 2019 में राजस्थान हाई कोर्ट ने और 2021 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने अपनी अपनी राज्य सरकारों को पब्लिक लैंड प्रोटेक्शन सेल (पीएलपीसी) नाम के स्थाई संस्थानों की स्थापना के निर्देश दिए। इन प्रकोष्ठों में ग्रामीण इलाक़ों में किए गए सार्वजनिक भूमि अतिक्रमण से जुड़ी शिकायतें आती हैं और यह क़ानूनी प्रक्रियाओं के तहत इन मामलों को निबटाकर उन्हें ग्राम सभा या ग्राम पंचायत को वापस लौटाते है।

आज की तारीख़ में दोनों राज्यों के प्रत्येक ज़िले में दो पीएलपीसी की स्थापना हो चुकी है जिसका प्रमुख ज़िले का कलेक्टर होता है। भारत के दो तिहाई से अधिक अदालती मुक़दमे ज़मीन या सम्पत्ति से जुड़े होते हैं और इनमें ज़्यादातर मामले सार्वजनिक भूमि के हैं। ऐसी स्थिति में पीएलपीसी जैसे संस्थानों की स्थापना इन मामलों में एक स्वागत योग्य हस्तक्षेप है। पीएलपीसी में समुदाय के लोग सीधे तौर पर अपनी सार्वजनिक ज़मीन के मामले का बचाव कर सकते हैं और ज़मीन से जुड़े नियमों और विधानों की जटिलता से बच सकते हैं। इससे पेशेवर क़ानूनी सहायता लेने या अदालत के शुल्क का भुगतान करने में कमी आती है। जिसके कारण आबादी का एक बड़ा हिस्सा काफ़ी कम खर्च में अपने क़ानूनी संसाधनों को वापस हासिल कर लेता है। मुद्दों से निबटने के लिए वैकल्पिक व्यवस्था को संस्थागत करने से बहुत जटिल और खर्चीले अदालती तामझाम से बचा जा सकता है और साथ ही न्यायालय के कार्यभार को कम किया जा सकता है। वर्तमान में उच्च न्यायालय केवल उन मामलों की सुनवाई करता है जिसमें पीएलपीसी किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करते हैं; एक प्रहरी की भूमिका में रहकर न्यायिक प्रक्रियाओं को नियमों का पालन करने और इन प्रकोष्ठों की जवाबदेही सुनिश्चित करने की अनुमति मिलती है। 

पीएलपीसी को और अधिक असरदार कैसे बनाया जा सकता है?अपनी शुरुआती अवस्था में होने के बावजूद पीएलपीसी क़ानूनी जानकारियों को लोकतांत्रिक बनाने, न्याय दिलवाने और अतिक्रमण के मामलों का तेज़ी से निवारण करने में सहायक साबित हो रहे हैं। हालाँकि अतिक्रमण के मामलों के निबटारों के अलावा पीएलपीसी सार्वजनिक भूमि के प्रबंधन और संचालन में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं इसलिए इस विषय पर गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है।

‘ज़मीन’ राज्यों के दायरे में आने वाला विषय है। किसी भी सार्वजनिक भूमि पर जब तक पहले से किसी सरकारी विभाग विशेष (जैसे कि वन विभाग) का मालिकाना हक़ नहीं होता है तब तक क़ानूनी रूप से ज़मीन के उस टुकड़े को ‘सरकारी ज़मीन’ के उपवर्ग (सबसेट) के दायरे में ही रखा जाता है। भूमि रिकॉर्ड के सर्वेक्षण, रिकॉर्ड के रखरखाव की ज़िम्मेदारी भी राज्य के राजस्व विभागों की होती है। इसके साथ ही, पंचायती राज व्यवस्था ग्राम पंचायतों को गाँव की आम भूमि के प्रबंधन और संरक्षण का दायित्व सौंपती है।

हालाँकि, अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि जहां स्थानीय स्तर पर पहुँच और उपयोग के अधिकारों को मान्यता दी जा चुकी है वहीं इन्हें औपचारिक रूप से दर्ज नहीं किया जाता है। स्थाई दस्तावेज़ों की सूची में आने के बाद भी आम ज़मीनों से जुड़ी जानकारियाँ नियमित रूप से अपडेट नहीं की जाती हैं। उनकी सीमाओं की स्थानिक पहचान भी ग़ायब हो चुकी हैं। इस तरह की जानकारी सम्बन्धी सूचनाओं की कमी से समुदायों का अपनी ज़मीन पर किया जाने वाले दावे कमजोर हो जाते हैं। इससे सार्वजनिक भूमि का दुरुपयोग शुरू हो जाता है और लोग उसे नज़रअन्दाज़ करने लगते हैं। नतीजतन बिना किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के उन ज़मीनों पर निजी अतिक्रमण को बढ़ावा मिल जाता है। नियमित रूप से सुचारु पीएलपीसी इनमें से कुछ बाधाओं को दूर करने की कोशिश कर सकता है और सुधारवादी कदम के बजाय अतिक्रमण को रोकने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। जैसे कि सार्वजनिक भूमि की व्यापक पहचान, सर्वेक्षण और सीमांकन के लिए एक मज़बूत कदम उठाना और भूसम्पत्ति मानचित्र तैयार करना। ज़मीन से जुड़े रिकॉर्ड में पूरी तरह से सुधार चाहने वाला डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड मॉडर्नाईजेशन प्रोग्राम भी ज़मीन पर निजी स्वामित्व और अधिकार पर केंद्रित है। नवीनतम स्वामित्व योजना में से भी सार्वजनिक भूमि को हटा दिया गया है। इस योजना में आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में सर्वेक्षण करने और भूमि के कार्यकाल को औपचारिक रूप देने के लिए ड्रोन तकनीक का उपयोग किया जाता है। पीएलपीसी भी सार्वजनिक संसाधनों के मुफ़्त उपयोग और स्थानिक रूप से संदर्भित आँकड़े तैयार करने और उन्हें भूमि प्रशासन के सामने लाने के लिए ऐसे ही तरीक़ों का इस्तेमाल कर सकता है। उसके बाद वे इस तैयार आँकड़ों को पंचायत में पंजीकृत सम्पत्तियों से जोड़ कर, सामाजिक ऑडिट के लिए आधार तैयार कर सकते है और अतिक्रमण पर निगरानी रखने के लिए आधार रेखा का काम कर सकते हैं।

हाल ही में राज्य में बड़े पैमाने पर हुए अतिक्रमण से निपटने के लिए मद्रास हाई कोर्ट ने तमिलनाडू सरकार को यह निर्देश दिया कि वह राज्य की सभी जल निकायों की उपग्रहीय (सेटेलाइट से) तस्वीरें लें और इन्हें प्रत्येक ज़िले के एक संदर्भ बिंदु के रूप में उपयोग में लाएँ ताकि उन संसाधनों को यथावत सुरक्षित रखा जा सके। पीएलपीसी इस ज़िम्मेदारी को डिज़ाइन के माध्यम से पूरा कर सकते हैं।

सार्वजनिक संसाधनों के उत्तरदायी शासन की स्थिति को हासिल करने के लिए अतिक्रमण को अपने केंद्र में रखने वाले क़ानूनी दृष्टिकोण के ऊपर से नीचे के नियम (टॉप-डाउन क़ानून) की प्रभावशीलता का मूल्यांकन ज़रूरी है। ज़मीन एक राजनीतिक मुद्दा है। संसाधनों से युक्त ज़मीन का एक सार्वजनिक टुकड़ा सार्वजनिक पूँजी होता है और इसमें सामाजिक सामंजस्य और सद्भाव के गुण निहित होते हैं। इसलिए इन संसाधनों के प्रबंधन में पीएलपीसी पंचायतों और ग्राम संस्थाओं को समर्थन देने वाली और अधिक प्रभावी तरीक़ों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है। समस्याओं के निबटान के लिए एक सहायक शाखा के रूप में सामाजिक सम्बन्धों को बेहतर करने के क्षेत्र में काम करने से अधिक न्यायपूर्ण परिणाम हासिल हो सकते हैं।

https://hindi.idronline.org/article/public-land-protection-cells-a-new-hope-for-indias-common-lands/